Ajit Pawar की बारामती में रिकॉर्ड जीत: ‘वोट चोरी’ सवालों पर जवाब, महायुति में बढ़ा कद

Ajit Pawar की बारामती में रिकॉर्ड जीत: ‘वोट चोरी’ सवालों पर जवाब, महायुति में बढ़ा कद

Anmol Shrestha सितंबर 6 2025 0

बारामती में नई पटकथा: बड़ी जीत, बड़ा सवाल

बारामती ने इस बार इतिहास पलट दिया। यहां जिस परिवार का दशकों तक वर्चस्व रहा, उसी परिवार के भीतर 2024 के विधानसभा चुनाव में सबसे तगड़ी टक्कर दिखाई दी—and नतीजा साफ रहा। Ajit Pawar ने अपने भतीजे युगेंद्र पवार को एक लाख से ज्यादा मतों के बड़े अंतर से हराया। नतीजों के बाद जब ‘वोट चोरी’ जैसे आरोप सोशल मीडिया और राजनीतिक चर्चा में उछले, तो अजित पवार ने सीधा सवाल दागा—“मैं एक लाख से ज्यादा से जीता हूं, तो क्या मैंने कुछ गलत किया?” यह वाक्य सिर्फ जवाब नहीं था, बल्कि अपनी राजनीतिक वैधता का दावा भी था।

यह जीत पारिवारिक रस्साकशी से आगे जाकर राज्य की राजनीति में शक्ति संतुलन बदलने वाली साबित हुई। अजित पवार के नेतृत्व में एनसीपी (महा‍युति) ने 59 में से 40 सीटें जीतीं—करीब 68% की स्ट्राइक रेट। तुलना में, शरद पवार की एनसीपी (शरद पवार) 86 में से 10 सीटों पर सिमट गई। गठबंधन स्तर पर देखें तो भाजपा ने 149 में से 134 सीटें झोली में डालकर अपनी पकड़ और मजबूत की, जबकि एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजित पवार की एनसीपी ने मिलकर अपनी मूल पार्टियों से निकलकर 75 सीटें पलट दीं। उधर, विपक्षी महा विकास अघाड़ी 45 सीटों के साथ पिछड़ गई—ये वही गठबंधन है जिसने साल की शुरुआत में लोकसभा की 48 में से 30 सीटें जीतकर उम्मीदें जगाई थीं।

इस नतीजे की टाइमलाइन समझना जरूरी है। 2023 में जब अजित पवार अपने साथ 41 विधायक लेकर महायुति सरकार में शामिल हुए, तो इसे महाराष्ट्र की राजनीति का सबसे बड़ा ‘फैमिली स्प्लिट’ कहा गया। उसी स्प्लिट का चुनावी फाइनल इस बार मैदान में खेला गया, और फैसला साफ रहा—बारामती में अजित पवार का प्रभाव बरकरार है। खास बात यह कि कुछ ही महीने पहले लोकसभा चुनाव में उनकी पत्नी सुनेत्रा पवार, उनकी चचेरी बहन सुप्रिया सुले से बारामती में हार गई थीं। तब कई लोगों ने इसे अजित पवार की ‘डिक्लाइन नैरेटिव’ के रूप में देखा। विधानसभा नतीजे उस नैरेटिव की धराशायी होती तस्वीर हैं।

बारामती का अर्थ यहां सिर्फ एक सीट नहीं, एक प्रतीक है। शरद पवार की राजनीति का यह गढ़ लंबे समय तक अजेय माना गया। इस बार परिवार के भीतर ही सीधी लड़ाई हुई और अंजाम अलग निकला। इस हार-जीत का संदेश दूर तक गया है—अजित पवार ने न सिर्फ अपने घर-आंगन में पकड़ बनाए रखी, बल्कि अपने धड़े को ‘रियल एनसीपी’ के दावे पर चुनावी ठोसता भी दे दी। सीटों के अंतर का अनुपात—करीब 4:1—इस दावे को और वजन देता है।

‘वोट चोरी’ पर उठे सवाल चुनावी शोर का हिस्सा हैं, मगर निर्वाचन प्रक्रिया की मानक व्यवस्था भी नजरअंदाज नहीं की जा सकती—ईवीएम सील, स्ट्रॉन्गरूम की 24x7 निगरानी और मल्टी-लेयर काउंटिंग। फिलहाल जो सार्वजनिक तौर पर है, उसमें यह आरोप बयानबाजी के स्तर पर ज्यादा दिखते हैं। अजित पवार का तर्क भी वही कहता है—इतने बड़े अंतर में जीत की वैधता पर सवाल क्यों? इस पर जिनके पास ठोस सबूत हैं, वे कानूनी मंचों पर जाएंगे—इसी प्रक्रिया को लोकतंत्र का रूटीन सेफ्टी-वाल्व माना जाता है।

रणनीति के सेल्फ-ऑडिट में अजित पवार की टीम ने दो-तीन स्पष्ट बदलाव किए। पहला, महिलाओं पर केंद्रित कल्याणकारी नैरेटिव—लड़की/लाडकी बहिन योजना जैसे संदेशों को कैम्पेन का फ्रंट-एंड बनाया गया। दूसरा, रंग-राजनीति—पिंक कलर का सुसंगत इस्तेमाल ब्रांड रीसेट जैसा लगा। तीसरा, टोन-मैनेजमेंट—लोकसभा के वक्त की तरह शरद पवार पर पर्सनल अटैक से परहेज किया गया। इस सॉफ्टर टोन और लोकल डिलीवरी के कॉम्बिनेशन ने असर दिखाया।

महा‍युति की मशीनरी इस चुनाव में पूरी क्षमता से दौड़ी। भाजपा का बूथ-से-बैरिकेड तक का संगठन, शिंदे शिवसेना का स्थानीय नेटवर्क और एनसीपी (अजित गुट) की जिला-स्तरीय पकड़—तीनों की ‘कास्टिंग’ जम गई। नतीजों में यह तालमेल दिखाई देता है—सीट-शेयरिंग विवादों के बावजूद, ग्राउंड पर वोट ट्रांसफरबिलिटी ठीक-ठाक रही। यही वजह है कि महायुति सिर्फ आगे नहीं बढ़ी, बल्कि कई इलाकों में विपक्ष के ‘सेफ’ माने जाने वाले मैदान भी अपने नाम कर गई।

अब एक बड़ा सवाल—क्या अजित पवार के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी करीब आ गई? अंकगणित देखेंगे तो भाजपा का दबदबा इस सवाल को दूर रखता है। हां, पावर-शेयरिंग, कैबिनेट बर्थ्स और संसाधनों के आबंटन में अजित पवार का वजन बढ़ना तय मानिए। एक और पहलू है—गठबंधन के भीतर वैचारिक और क्षेत्रीय प्राथमिकताओं का बैलेंस। महाराष्ट्र में यही बैलेंस भविष्य की स्थिरता तय करेगा। अजित पवार के लिए फिलहाल सबसे बड़ा पूंजी-लाभ यही है कि वे सरकार में ‘निर्णायक घटक’ के तौर पर अधिक स्पेस लेकर चले।

विपक्ष के लिए यह हार चेतावनी भी है और पाठ भी। लोकसभा बनाम विधानसभा—दो अलग-अलग इलेक्टोरल मार्केट हैं। राज्य में लोकल इश्यू, कल्याणकारी योजनाएं और कैंडिडेट कनेक्ट, राष्ट्रीय राजनीति से अलग तरीके से असर डालते हैं। महा विकास अघाड़ी के लिए अगला कदम संगठनात्मक री-बिल्डिंग, साझा नैरेटिव और सीट-स्तर पर ऐसे चेहरे खड़े करना होगा जो ग्राउंड पर पकड़ दिखा सकें।

बारामती की राजनीतिक अर्थव्यवस्था भी चर्चा में है। यह इलाका सहकारी संस्थाओं, कृषि-उद्योग और शिक्षा-संस्थानों के लिए जाना जाता है। यहां वोटर प्राथमिकताएं अक्सर काम-काज, सिंचाई, बाजार तक पहुंच और स्थानीय प्रोजेक्ट्स पर केंद्रित रहती हैं। अजित पवार लंबे वक्त से इसी ‘डिलीवरी-लिंक’ पर अपनी राजनीति खड़ी करते आए हैं। परिवार विभाजन के बाद भी स्थानीय स्तर पर उनका माइक्रो-मैनेजमेंट और केडर-मोबिलाइजेशन कायम रहा—यह बात नतीजे बता रहे हैं।

संख्याओं की भाषा में बात करें तो कहानी और स्पष्ट दिखती है। एनसीपी (अजित गुट) की 40/59 की सफलता स्ट्राइक-रेट की परीक्षा में पास बैठती है। एनसीपी (शरद पवार) को 10/86 पर रोक देने का मतलब है कि उनके पारंपरिक किलों में भी क्रैक आया है। भाजपा की 134/149 की दौड़ बताती है कि उसका वोट-कोर ठोस बना हुआ है, और सहयोगी दलों के साथ तालमेल भी काम कर रहा है। यह ‘मैप-रीड्रॉ’ सिर्फ सीटों का नहीं, बल्कि केडर-डायनेमिक्स और मेसेजिंग-प्राथमिकताओं का भी है।

अजित पवार के राजनीतिक करियर पर नज़र डालें तो 1991 के लोकसभा चुनाव से शुरू हुई यात्रा ने उन्हें राज्य की सत्ता के आसपास रखा है। शरद पवार जहां राष्ट्रीय राजनीति पर झुके रहे, वहीं अजित पवार ने जिलों में नेटवर्क खड़ा किया, और प्रशासनिक फैसलों के जरिए स्थानीय पकड़ मजबूत की। यही लोकल एंकरिंग उन्हें बार-बार खड़ा करती रही है। परिवार के भीतर सीधे मुकाबले का जोखिम उठाना आसान नहीं था, पर इस जीत के बाद उन्होंने दिखा दिया कि ‘स्प्लिट’ कोई अस्थायी घटना नहीं, बल्कि नया पावर-आर्किटेक्चर है।

‘वोट चोरी’ बहस पर लौटें। बड़े अंतर से हुई जीतें अक्सर ऐसे आरोपों को जन्म देती हैं, खासकर तब जब मुकाबला हाई-स्टेक्स और इमोशनल हो। लेकिन लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में शॉर्टकट नहीं चलते—जिसके पास ठोस आधार होते हैं, वह निर्वाचन आयोग, अदालतों और पुनर्गणना जैसी वैधानिक प्रक्रियाओं का सहारा लेता है। राजनीतिक बयान तल्ख हो सकते हैं, पर उनकी उम्र छोटी होती है। नीति और परिणाम अंततः फाइलों और फैसलों में दर्ज होते हैं।

कैंपेन की बात करें तो इस बार का फोकस महिलाओं पर केंद्रित आर्थिक सहायताओं और कल्याणकारी आश्वासनों पर था। यह सिर्फ पोस्टर-रंग नहीं, वोट-मैसेज का री-फ्रेमिंग था। लोकसभा में बारामती की हार के बाद टीम ने ग्राउंड-रीडिंग की—कौन से मुहल्ले, कौन से मुद्दे, किस तरह की भाषा। अगले फेज़ में उन्होंने टकराव से ज्यादा भरोसे की बात की, चेहरे की विश्वसनीयता और लोकल प्रोजेक्ट्स की निरंतरता को उभारा। इस टैक्टिकल शिफ्ट ने बारामती में हवा बनाई और अन्य सीटों पर भी इको पैदा किया।

महा‍युति की बड़ी जीत का एक असर यह भी होगा कि नीतिगत फैसलों में गति बढ़ेगी—इन्फ्रास्ट्रक्चर, उद्योग, ग्रामीण विकास और शहरी सेवाओं के मोर्चे पर। सवाल यही रहेगा कि क्या गठबंधन इस रफ्तार को समन्वय के साथ चला पाएगा? अजित पवार के लिए चुनौती दोहरी है—एक ओर अपने धड़े के संगठन को विस्तार देना और दूसरी ओर सरकार में डिलीवरी रिकॉर्ड को और तेज करना। विपक्ष उतना ही प्रासंगिक होगा, जितना वह विधानसभा के भीतर और बाहर ठोस वैकल्पिक एजेंडा रख पाएगा।

शरद पवार की राजनीतिक पूंजी अब भी कम नहीं आंकी जा सकती। उनका प्रभाव कई इलाकों में बना हुआ है और युवा नेतृत्व को तैयार करने की उनकी क्षमता पर कोई सवाल नहीं। मगर मौजूदा चुनाव ने साफ किया है कि प्रतीकात्मकता भर काफी नहीं—ग्राउंड पर नए सामाजिक गठजोड़, नई कल्याणकारी प्राथमिकताएं और बेहतर माइक्रो-कम्युनिकेशन की जरूरत है। अगले चुनाव तक यही तीन चीजें तय करेंगी कि कौन-सा नैरेटिव लंबा चलता है।

बारामती से निकली ये तस्वीर राज्य भर में फैली दिखती है—मतदाता ने इस बार स्थिरता, डिलीवरी और लोकल कैंडिडेट कनेक्ट को तवज्जो दी। परिवारों के भीतर की राजनीति से ज्यादा, रोज़मर्रा की जरूरतें और सरकारी लाभ सीधे पहुंचना, निर्णायक साबित हुआ। अजित पवार की इस जीत में संदेश साफ है—राजनीतिक दावेदारी सिर्फ नाम, पहचान या वंश के भरोसे नहीं चलती; उसे हर चुनाव में नए सिरे से साबित करना पड़ता है।

रणनीति, समीकरण और असर: महाराष्ट्र की नई तस्वीर

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अगर इस चुनाव को एक फ्रेम में समझना हो, तो वह होगा—‘लोकल डिलीवरी + ब्रांड हार्मनी + गठबंधन मैथमेटिक्स’। लोकल डिलीवरी ने कैंडिडेट को जमीन से जोड़ा, ब्रांड हार्मनी (रंग, भाषा, वादे) ने संदेश को सरल बनाया और गठबंधन का गणित वोट ट्रांसफर और सीट मैनेजमेंट में मददगार रहा। यही तीन चीजें मिलकर बड़े अंतर वाली जीतों की बुनियाद बनती हैं।

कई सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय था, जहां विपक्ष के वोट बंटे और महायुति को सीधा फायदा मिला। जहां लड़ाई सीधी दिखी, वहां भी कैंडिडेट-केंद्रित कैंपेन—घर-घर संवाद, बूथ-लेवल माइक्रो टार्गेटिंग और फीडबैक के त्वरित इस्तेमाल—ने तस्वीर बदल दी। चुनाव जीतने की टेक्नोलॉजी अब सिर्फ रैली और रोडशो नहीं—डेटा, डोर-टू-डोर और दिन-प्रतिदिन की नब्ज पर टिकी है।

अगला अध्याय अब शासन का है। बड़ा जनादेश हमेशा अपेक्षाओं का पहाड़ साथ लाता है। महायुति के सामने शहरी बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ड्राइव देने वाली नीतियां, युवाओं के लिए रोजगार के मौके और महिलाओं के लिए भरोसेमंद सुरक्षा-जाल को लेकर ठोस डिलीवरी दिखाने की चुनौती है। यहां अगर तालमेल ढीला पड़ा, तो वही जनादेश दबाव में भी बदल सकता है। अजित पवार के लिए, यह वह मौका है जब वे अपनी प्रशासनिक दक्षता को राजनीतिक पूंजी में बदल सकते हैं।

बारामती का फैसला आने वाले महीनों में बार-बार उद्धृत होगा—कभी सत्ता संतुलन की बहस में, कभी गठबंधन-राजनीति की केसमेट स्टडी में, और कभी परिवार बनाम प्रदर्शन की टकराहट में। पर अभी की सच्चाई यही है: एक बड़े अंतर की जीत ने अजित पवार को फिर से स्पॉटलाइट में ला खड़ा किया है; ‘वोट चोरी’ की बहस से इतर, मैदान ने फैसला दे दिया है; और महाराष्ट्र की राजनीति ने अपना नया पावर-मैप बना लिया है।